क्षणिक मृत्यु का वरदान
तुम्हारा भाग्य कब था ?
तुम्हें तो प्रत्येक पल
सहस्रों बार मरना था
किसी अविरल वेग संग
अनायस विलुप्त होना
शायद सौभाग्य ही होता
पर तुम्हें तो नित्य ही
किसी मंथर जलधारा
में स्वयं को डुबोना था
सहज सरल निकास
तुम्हें पर्याप्त कब था ?
तुम्हें तो प्रत्येक श्वास
अथक प्रयास करना था
किसी शिखर के चरम से
एक अनंत उड़ान की कूद
शायद सुविधा ही कहलाती
पर तुम्हें तो हर साँझ
अपने स्वाभिमान के बोझ
तले तिल-तिल पिसना था
धूप-दीप, थाली, चन्दन
तुम्हें सुहाता कब था ?
तुम्हें तो हर मणके में
अमिट, बैराग जपना था
कटी कलाई के रिसाव से
इस देह का अंतिम स्नान
लाल मदिरा सा उन्माद देता
पर तुम्हें तो बूँद-बूँद कर
अपने छलनी अस्तित्व को
प्रतिदिन बहाना था
कटाक्षों की कटारों से
तुम्हें भय कब था ?
तुम्हें तो किसी जन्म का
बस कुछ ऋण चुकाना था
विष का पात्र भी अगर
मात्र एक घूँट का होता
तो सीने से ना बहता
पर मेरी मीरा, तुम्हें तो
हर तृष्णा की तृप्ति हेतु
विष का सागर सुखाना था
इस निर्जन मरुस्थल में
तुम्हारा स्थान कब था ?
तुम्हें तो किसी छाया में
कहीं और, दूर ही होना था
क्षुधा, पीड़ा, इस काया को
शिथिल, निर्जीव कर जाती
तो भी संतोष सुख होता
पर तुम्हें तो हर आस से
अपनी अलख लौ में नित
खुद को भस्म करना था
मैं तुम्हारा दोषी हूँ, मीरा
अपराध, तुम्हारा कब था ?
तुम्हारा जोग, मौन अर्पण
मेरा तर्पण होना था
3 comments :
first, can u pls put the comments box right under the post instead of after the related posts. I had to look real hard to find it.
and second, as Dominique would say, no one has a right to write something like this.
@HDWK - Always wonderful to hear from you. It's been so long that I altered the design on this blog that I have been struggling to make the change you suggested. There is however an alternate comments box right under the post that you can leave comments using your FB ID if you like...and yes, I take Dom's quote as yours on the post.. :D
.. and of course you now know the story behind the post as well.
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