Tuesday, June 5, 2018

bags"वक़्त हो चला है, सामान कब से बांधे रखा है? क्या देर है? उठती क्यों नहीं? क्यों बार-बार इन दीवारों को देखे जा रही हो? यह दीवारें साथ नहीं चल सकती"

“हाँ, जानती हूँ कि यह दीवारें साथ नहीं चलेंगी, पर क्या तुम नहीं जानते कि यह दीवारें कभी मुझसे अलग भी ना हो पायेंगी। कहीं किसी दीवार पर मेरा बचपन टंगा है, कहीं किसी कोने में कोई याद सहेजी है।  उस तरफ़ देखो, वहाँ खिड़की के परदे के पीछे किसी कील पर, अभी कुछ रोज़ पहले ही तो लुका-छुपी खेलते हुए मेरी फ्रॉक फंस गयी थी और माँ जब  डाँट रही थी तो पिताजी ने पीछे से आ कर मुझे गोद में उठा कर बाहर बन्ने पर बैठा दिया था। 

कहीं रसोई के मर्तबान का अचार छिटका है तो कहीं मेरे ब्रश और रंग बिखरे हैं। मेरी किताबों के पन्नों से गिरे सूखे फूल, मेरी स्टडी के दराज़ों में आज भी कहीं मिल जाते हैं। चलो, और एक राज़ की बात आज तुम्हें बता देती हूँ, कॉलेज के दिनों में जब कभी देर रात रेडियो सुना करती थी तो कई दफ़ा बिस्तर के साथ लगी दीवार पर किसी गाने के बोल पेंसिल से लिख देती थी और अगले कई दिनों तक उन्हें गुनगुनाती रहती थी।  चूने की दीवारों पर पेंसिल की लिखाई वाली दीवार, बोलो कैसे छूटेगी ?”

“तुम नाहक जज़्बाती हो रही हो।  यह घर कहाँ भागा जा रहा है ? जब मन करे आ कर देख जाना।” 

“क़ाश मैं आज भी सात-आठ बरस की होती, तो शायद तुम्हारी यह बात मुझे कुछ दिलासा दे जाती। यह तुम भी जानते हो ना, कि हम अब शायद यहाँ कभी ना लौट पायेंगे।”

“जानते हो, जब मैं छोटी थी, तब वहाँ स्टोर की छत के पास एक चिड़िया का घोंसला हुआ करता था, पता नहीं कब, कहाँ उड़ गयी और फ़िर कभी वापस नहीं आयी।  उस चिड़िया के बाद कभी किसी और पक्षी ने भी वहाँ घोंसला नहीं बनाया।  और अब देखो, आज कल शहरों में मटमैले कबूतरों के अलावा कोई और पक्षी नज़र ही नहीं आते। जाने वो सब चिड़िया कहाँ गयी, शायद मेरी तरह वह सब भी किसी बेहतर ज़िन्दगी के ख़्वाब लिये, किसी और देश जा बसी।”

"अब तुम जी छोटा ना करो, चलो एक काम करो, जो कुछ और ले जाना चाहो एक बैग में और भर लो।  हम एक एक्स्ट्रा बैग के लिए एयरलाइन को पेमेंट कर देंगे।  अब, ख़ुश ?"

“हा-हा, मज़ाक कर रहे हो? क्या-क्या भर लूँ, एक बैग में, बोलो? दराज़ में भरी सब पुरानी तस्वीरों के एल्बम, या ऊपर रखे ट्रंक में सहेज के रखे मेरे पुराने उपन्यास और कॉमिक्स, क्या एक बैग में घर की वह सब क्राकरी भर लूँ, जो माँ ने जाने कहाँ-कहाँ से चुन-चुन कर खरीदी थी? कहो तो, पिताजी के हाथ से लगाए सब पौधे साथ ले लूँ, या फ़िर अपनी पहली तनख्वाह से खरीदा हुआ लोहे वाला कूलर ले चलूँ ?

बात सामान की कहाँ है? बात उन दिनों की है जो जाने कब, कैसे बहुत पीछे छूट गए।  देखते ही देखते, कई साल रेत की तरह मुट्ठी से फ़िसल गए। अभी जहां कुछ रोज़ पहले मैं उस कमरे को अपना कह भाई को भी अंदर ना आने देती थी, देखो वही कमरा, आज कैसे मुझे अजनबी सा देख़ रहा है?”

उफ़, अगर इतना बुरा लग रहा है तो क्यों जाना है ? कहो तो cancel कर दें ?

“React ना करो, बस मेरी सुन लो। इन दीवारों में मेरा आधा जीवन बीता है, तुमसे शादी के बाद, एक पाँव इस घर से उठा ज़रूर था पर कभी ऐसा ना लगा था कि यह मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा नहीं है, पर अब जब यहाँ से जा रहे हैं तो एक अजीब सी आसक्ति हो रही है।  ज़रा सोचो, शायद किसी मृतप्राय व्यक्ति को भी ऐसा ही लगता होगा। पूरी ज़िन्दगी जो कमाया, सब ऐसे ही छोड़ के चल देना है।  सब निरर्थक ही तो है? नहीं? पर हम तब भी एक-एक दिन सिर्फ़ इस उम्मीद में बिताये जा रहे हैं कि अगला आने वाला दिन जाने क्या ले आये।”

“क्या चाहती हो ? ऐसे आख़िरी समय पर इन सब बातों से क्या फ़ायदा? हमारी टिकट्स भी refundable नहीं हैं, पहले कहती तो कुछ दिन के लिए जाना टाल देते। इसी लिए मैं नहीं चाहता था कि तुम जाने से पहले यहाँ फ़िर से आओ।  हमें सीधे ही एयरपोर्ट के लिए निकल जाना चाहिए था।”

“क्यों गुस्सा करते हो? जाना तो है ही, पर जाते हुए इस जगह से, इस मिटटी से बिना मिले नहीं जा सकती थी। कुछ देर यहाँ बैठो ना, मेरे साथ। तुम पूछ रहे थे ना कि क्या एक बैग और भरना है, तो आओ जाने से पहले, कुछ चीज़ें और बटोर लेते हैं। तुम बैग भरो, मैं उस में, इस छत पर शाम को टहलते हुए पढ़ने की आदत, आँगन में बिछी हुई चारपाई का आराम, दिसंबर-जनवरी की अलसायी हुई सुबह में नहाने की हड़बड़ाहट सब भर लेती हूँ।  ज़रा जगह बचे तो बताना, गर्मी के दिनों के पावर-कट और बिना AC और Inverter के जीने वाली हिम्मत भी ऱख लूँगी। आगे की जेब में तुम मेरी 'विविध-भारती के विज्ञापन प्रसारण के दिल्ली केंद्र' की सेवा और 'छायागीत' भर देना।

और जो, गली के मोड़ पर कुल्फ़ी वाला हाँक लगाता था, उसे मैं यूँ ही हैंडल से बाँध लूंगी।  चलो अब, मेरी पैकिंग पूरी हो गयी। इन दीवारों पर जो शाम की हलकी ओस उतर आयी है, जाने से पहले एक आख़िरी बार उसे रात की चादर ओढ़ा कर निकलने का मन था।  तुम आज अगर मेरी बात मान कर मुझे यहाँ ना ले आते, तो शायद यह दरवाज़े हमेशा मेरी राह देखते रहते। अब इन्हें भी तसल्ली रहेगी और, शायद मुझे भी।”

“चलो बुलाओ टैक्सी, निकलते हैं।  देर हो रही है।”


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