Friday, August 26, 2011

पुरानी रद्दी में से एक स्कूल की किताब निकली. बीच के पन्नो में कभी कहीं खाली बैठे हुए एक तस्वीर खींची गयी थी. बात उस वक़्त की है जब शायद यह तस्वीर हर बच्चे की किसी ना किसी किताब के हाशिये के किनारे कभी ना कभी ज़रूर बनी मिलती थी.

पन्ने की ज़रा सी खाली जगह पे अचनाक बरस पड़ने वाले सफ़ेद बादल उमड़ आते थे, बादल - भरे-भरे से गोल किनारों वाले जिनके आस पास काली लकीरों से खींचे पक्षी उड़ते थे. बादलों के नीचे  भूरे पहाड़  जिनके बीच में से आधा सूरज उगता दिखाई देता था. सूरज ऐसा कि जिसके सर पे सरकंडों जैसी किरणें झांकती थी. उन पहाड़ों के बीच से एक नदी निकलती थी -  बिना लहरों की बलखाती, रेखा गणित या भौतिक विज्ञान के सभी नियमों से परे. कभी कभार कोने में एक पेड़ भी उगा दिया जाता था. 

अगर बसते में रंगों की डब्बी होती तो बरबस सूरज नारंगी, पहाड़ भूरे, नदी नीली और उस के आस पास की जगह हरी हो जाती थी. कभी समय की किल्लत नहीं होती थी, हाँ, अगर धैर्य छूट जाता तो हरी ज़मीन के ऊपर पांच पंखुड़ी वाले अनेकों फूल एक साथ हरे कर दिए जाते थे नहीं तो धीरे-धीरे लगन से पंखुड़ियां बनाई जाती थी और इन सब के किनारे तिकोनी छत वाला एक घर ज़रूर रहता था जिसके बगल से एक चौकोर खिड़की झांकती थी. खिड़की पर चौमुखे किवाड़ होना अनिवार्य सा ही था शायद. 

अब शायद ऐसी तसवीरें नहीं होती. सीमित विकल्पों का दौर जा चुका है. अब शायद तस्वीरों में वो घर नहीं बन सकते, शायद ज़हन में भी नहीं हो पायेंगे. नदी सूख चुकी है. पहाड़ों पर से लोगों ने पेड़ काट दिए और पत्थर फर्शों में डाल दिए हैं. तिकोनी छत वाले घर अब चौकोर इमारतों के लिए गिरा दिए गए हैं. शायद अब वो पन्ने नहीं रहे...

आज का सच शायद अब यही है. बरहाल, अगर किसी को अपनी बनायी वही पुरानी तस्वीर मिले तो ज़रूर भेजे...

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