शाम के कोनों पर
सिमटता छुपता
हाथ से छूने पर जो
पिघलता बहता था
कभी आँखों से छन कर
सिरहाने सूखता और
सुबह होने तक कहीं
हवा में जा घुलता था
कुछ था धुंए सा
सांस के सिरे से
बंधता उखड़ता
दिन और रात जो
सीने में जलता था
कभी आह बन उठता
और बिना थमे, रुके माथे से टपकता
लहू बन जाता था
कुछ था गहरा सा
सपनों में पिरोया
बुनता उधड़ता
खुली आँखों में जो
बिखरा रहता था
कभी धूप में चमकता
और खुशबू सा उड़ते
होठों पर यकायक
मुस्कान बन जाता था
कुछ था अपना सा
सुबह की ओस में
पलता बढ़ता
मौसमी बारिश में जो
बाहर खड़ा भीगता था
नज़र उठा देखता
तो लौट जाने से पहले
तुम्हारे घर के बाहर
बूँद-बूँद बिखर जाता था
कुछ है पराया सा
उम्मीद की तहों में
जागता सोता
हसरतों में मेरी जो
घर बनाए रहता है
कभी कहीं मिलता है
तो वक़्त सा दौड़ते
अनदेखा कर मुझे
यूँ ही गुज़र जाता है
3 comments :
very nice.. loved every word... keep writing...
Very nice!!! :)
@Roopa - Thanks. You have always been very encouraging.
@Gaurav - Good to see you around on the blog after long.
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