नित्य नवीन काया सजाए
राम नाम का कीर्तन गाये
जन - परिजन संग लिये
परिधान,श्रृंगार रंग किये
अनुष्ठान रात-दिन रचते हैं
मरघट के उत्सव कहते हैं
नश्वरता क्षण भर का शूल है
अंत, मात्र आँख पड़ी धूल है
मसान भला, कहाँ जाता है ?
आगंतुक बदलते रहते हैं
यहां तिमिर भी जगमग रहते हैं
मरघट के उत्सव कहते हैं
बिन समर्पण, तर्पण कब है ?
अधूरी प्रज्ञा, उपलब्धि कब है ?
कायांत, जीवांत दोनों पृथक हैं
आत्म-अनुभूति ही परम तप है
शिव शमशान में रहते हैं
मरघट के उत्सव कहते हैं
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