Saturday, April 28, 2012

कुछ उन दिनों की बात है जब जाड़ों की झीनी धूप अपने साथ ऊंघते, अलसाये, दिन में पलते सपने लाती थी. तब शायद दिसम्बर का महीना इतना सर्द नहीं होता था क्योंकि मेरी उँगलियों को तब दस्तानों की ज़रुरत नहीं पड़ती थी.  उन दिनों तुम्हारे घर को जाने वाली सड़क पर इतने मोड़ नहीं थे. मेरे पांवों पर भी तब कोई सवाल नहीं था. वो पुरानी साइकिल शायद अपने आप ही चलती थी. उसकी हड्डियों को मेरे कब्जों-पुर्जों से कोई सरोकार ना था. पानी सी सड़क पर वो नाव सी बहती घंटों टहलती रहती थी. दिन में तब शायद घड़ियाँ धीरे चलती थी.

मुझे याद है, उन दिनों मेरे आँगन के पेड़ों का मिजाज़ बे-तक़लुफ्फी का था. भरी दोपहरी में भी उनसे बतियाने में नियम कायदों का सवाल ना था. गर्मियां के दिन तब शायद कुछ नर्म हुआ करते थे. अपने पसीने की बू भी तब शायद कुछ भली सी मालूम होती थी. बिजली का आना जाना कुछ खेल सा ही लगता था. रुका हुआ पंखा जब बरबस चल पड़ता, तो यकायक मुस्कुराहटें कमरे में भर जाती थी. उन दिनों की मध्यम वर्गीय विषमतायें कुछ खाने में स्वादानुसार मिले  नमक सी जीवन के ज़ायके को समांतर करती सी प्रतीत होती थी. आज के आधुनिक सुविधाओं की मिठास अब शायद अपने साथ नैतिक ह्रास का कसैला मधुमेह साथ लिए चलती है.

किताबों के पन्नों के वो दिन, स्याही वाले पेन की ही तरह हाथों से छूट गए हैं. हाथ से लिखे जो कुछ पत्र अलमारी में रख छोड़े थे, उन में दीमक लग गयी है. अब उन्हें देखता हूँ तो लिखावट अपनी नहीं किसी और की लगती है. शायद कोई और ही रहा होगा. उन स्वछन्द विचारों से खुद को परे किये हुए शायद एक जीवन काल से कुछ ज्यादा ही गुज़र चुका है.

शायद तुम्हारी - मेरी गलती नहीं है. बस शायद उन दिनों का ही कुछ फेर था. उन दिनों हवा शायद किसी और ही दिशा से बहती थी. उन दिनों, शायद सूरज किसी और ही रंग का था. मेरी यादों में धूप कुछ ज़्यादा सुनहरी आसमान कुछ ज्यादा नीला और तुम्हारी आँखें कुछ ज़्यादा गहरी हैं. उन दिनों का पैनापन और पागलपन अब नहीं रहा पर यूँ मैं कुछ निराश भी नहीं. यह परिवर्तन शायद तय था. हर पीढ़ी का अपना अंतर्द्वंद, अपना अंतर्नाद अवं अपना संघर्ष रहता है जिसे शायद खुद ही एक उद्देश्य देना अनिवार्य है. मलाल बस यही रहा कि तुम थोड़ा और रुकते तो अच्छा होता. जहां तुम उतरे, वो गंतव्य नहीं था. तुम अपने साथ एक युग ले गए और शायद कुछ अंश मेरा भी.

उन दिनों, जब तुम थे, तो फाकामस्ती थी. कुछ तभी का एक गीत कहीं नेपथ्य से गूंजता है...तुम गए, सब गया...ध्यान लगा सुनिए....यहाँ.
 

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