कुछ देर शब और जला
अभी तो सिर्फ़ आग़ाज़ है
चाँद कुछ और सुलगा
नींद अभी नाराज़ है
कहाँ मैं मयसर अभी
कहाँ कोई सुरूर है
कुछ खामोशी है मगर
कुछ तेरा ही कुसूर है
कुछ हर्फ़ क़ैद हैं ज़हन में
कोई लफ्ज़ धुंधला सा है
एक शाम है बिखरी सी
दिन एक, बुझा सा है
मुझे कब, कहाँ मालूम था
कि यह शहर किस तरह का है
हैरान हूँ, कि तुझे खबर नहीं
कि यह मोड़, कहाँ, कौन सा है
जिस रोज़ तुम मुड़ गए
वो वक़्त वहीँ रुका सा है
मैं जा फिर वहीँ बिका
बाज़ार जहां लगा सा है
मुझे क़ुबूल, मेरी तिश्नगी
मलाल सिर्फ़ इतना सा है
किनारे समेटती मेरी रूह से
तेरा फ़ासला रहा बस ज़रा सा है
2 comments :
One of the finest blog posts, exemplary!
Thank you for your kind words :)
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