Wednesday, April 2, 2014

कुछ देर शब और जला
अभी तो सिर्फ़ आग़ाज़ है 

चाँद कुछ और सुलगा
नींद अभी नाराज़ है

कहाँ मैं मयसर अभी
कहाँ कोई सुरूर है

कुछ खामोशी है मगर
कुछ तेरा ही कुसूर है

कुछ हर्फ़ क़ैद हैं ज़हन में
कोई लफ्ज़ धुंधला सा है

एक शाम है बिखरी सी
दिन एक, बुझा सा है

मुझे कब, कहाँ मालूम था
कि यह शहर किस तरह का है

हैरान हूँ, कि तुझे खबर नहीं
कि यह मोड़, कहाँ, कौन सा है

जिस रोज़ तुम मुड़ गए
वो वक़्त वहीँ रुका सा है

मैं जा फिर वहीँ बिका
बाज़ार जहां लगा सा है

मुझे क़ुबूल, मेरी तिश्नगी
मलाल सिर्फ़ इतना सा है

किनारे समेटती मेरी रूह से
तेरा फ़ासला रहा बस ज़रा सा है

Feather


02 Apr 2014

2 comments :

Roopa said...

One of the finest blog posts, exemplary!

Himanshu Tandon said...

Thank you for your kind words :)

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