Saturday, October 22, 2011

एक रोज़ वो भी था जब
ख़याल सीने पर रुकते थे 
हर जज़्बा शोला,
हर हर्फ़ अंगार होता था
आसमान के सफों से
तब आशार बरसते थे
नज़रों में कुछ अपनी
बर्क सा जूनून होता था
 
अफसानों की तब फुर्सत
सुनने वालों को भी थी
हर ज़बान पर अपना
किस्सा तमाम होता था
लफ्ज़ नामुमकिन हों तब भी
हर बात का तब
एक ही मतलब होता था
 
हुई मुद्दत
किसी शाख़ पर गुल देखे
कोई वक़्त तब
कहाँ ऐसा होता था
बेशक ना मिली हो
तुमसे नज़र कभी
ख़्वाबों को अपने
कहाँ यह मालूम होता था

रंग और बहते थे
आसमान पर तब
जब तेरी
यादों का मौसम होता था
 
Feather

2 comments :

How do we know said...

रंग और बहते थे
आसमान पर तब
जब तेरी
यादों का मौसम होता था
:-)
How sweet is that!!

Kalyan Panja said...

lovely words...nicely crafted lines!

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