ना सही मेरा ईमान काबे कलीसा में
हुआ मैं गर तो क्या, क़ाफ़िर ही सही
मेरे हर दिन, हर पल में शामिल तू
तेरे लिए चाहे मैं रहा अजनबी ही सही
किसी रोज़ किसी शब आरज़ू रखेंगे वस्ल की
हो उस पल गर क़यामत तो क़यामत ही सही
हो क्यों ना गुमान खुद पर, ऐ बुत तुझे
नज़र शमशीर तो है, चाहे दिल संग ही सही
पलट कर पहुंची खुद तक सदा मेरी
इन्तहा मेरी, इब्तेदा से ना-वाकिफ ही सही
कुछ कर गुज़रे क़ुछ गुज़र गयी, उसकी रज़ा थी
हसरत रही मायूस तो क्या, इस बार यूँ ही सही
3 comments :
Beautifully written!
:) is this the piece that i think it is?
@HDWK - It's not the same but yes, I guess it was derived from the one you think it was... :)
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