रास्तों और मंज़िलों का फ़र्क मिटा दिया
सहर-ओ-शब को इस तरह मिला दिया
नफ़ा-नुक्सान कैसा? क्या, किसने दिया?
इसी जमा-जोड़ में रात दिन लगा दिया
चलो अच्छा हुआ, वक़्त रहते बहा दिया
वरना रगों में फिरने से लहू ने क्या दिया?
जो बच गया था जेब में यूँ निबटा दिया
आग, पानी, मिटटी में सब उड़ा दिया
जाते-जाते आखिरी यह कर्ज़ चुका दिया
अपने दस्तखतों को आँगन में जला दिया
कुछ, आदतन एक क़तरा और बहा दिया
बस एक कश लिया और दिन बुझा दिया
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